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सामाजिक कुरीतियों को साहित्य के माध्यम से सामने लाये थे मुंशी प्रेमचंद


हिंदी और उर्दू के महानतम लेखकों में से एक मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी के लमही ग्राम में हुआ था। मुंशी प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय था।
एक सदी बीत जाने के बाद भी प्रेमचंद की कृतियों ने अपनी प्रासंगिकता नहीं गंवाई है। प्रेमचंद आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने वे स्वतंत्रता से पूर्व के समय में थे। उनके साहित्य और जिन चरित्रों का उन्होंने चित्रण किया, जिन समस्याओं के बारे में उन्होंने बात की, आज भी हम उनसे उबरने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। चाहे वह गरीबी हो या जाति के आधार पर भेदभाव, ये चीजें आज भी हमारे समाज में हैं और स्थिति बद से बद्तर हुई है। ‘होरी’ और ‘धनिया’ अब भी हमारे गांवों में हैं।
जीवन परिचय
हिंदी और उर्दू के महानतम लेखकों में से एक मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी के लमही ग्राम में हुआ था। मुंशी प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय था। उनके पिता अजायबराय डाकखाने में एक क्लर्क थे। बचपन में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया था तथा उसके बाद सौतेली मां के नियंत्रण में रहने के कारण उनका बचपन बहुत ही कष्ट में बीता। धनपत को बचपन से ही कहानी सुनने का बड़ा शौक था। इसी शौक ने इन्हें महान कहानीकार व उपन्यासकार बना दिया। प्रेमचंद की शिक्षा का प्रारंभ उर्दू से हुआ। पढ़ाई में तेज होने के कारण शीघ्र ही मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। कठोर परिश्रम के चलते इंटर और बीए भी जल्दी ही पास कर लिया। स्नातक होने के बाद अल्पायु में ही प्रेमचंद का विवाह कर दिया गया। लेकिन मनोनुकूल पत्नी न होने के कारण बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह कर लिया।
आदर्शवादी व्यक्ति थे मुंशीजी
मुंशी प्रेमचंद बहुत ही आदर्शवादी व ईमानदार व्यक्ति थे। कुछ दिन शिक्षा विभाग में नौकरी की लेकिन बाद में गांधीजी के आह्वान पर नौकरी छोड़ दी और साहित्य सृजन में लग गये। एक प्रकार से प्रेमचंद आर्यसमाजी व विधवा विवाह के प्रबल समर्थक भी थे। 1910 में मुंशी प्रेमचंद की रचना सोजे वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे वतन की सभी प्रतियां जब्त कर ली गयीं। कलेक्टर ने उन्हें अब और आगे न लिखने के लिए कहा और कहा कि यदि दोबारा लिखा तो जेल भेज दिया जायेगा। इस समय तक धनपत राय मुंशी प्रेमचंद के नाम से लिखने लग गये थे।
प्रारम्भिक लेखन
मुंशी प्रेमचंद ने अपना प्रारम्भिक लेखन उर्दू में प्रकाशित होने वाली जमाना पत्रिका में किया। उनकी पहली कहानी सरस्वती पत्रिका में 1915 के दिसम्बर अंक में 'सौत' प्रकाशित हुई और अंतिम कहानी 'कफन' नाम से। मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरूआत की। भारतीय साहित्य का बहुत-सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा चाहे वह दलित साहित्य हो या फिर नारी साहित्य उसकी जड़ें प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई पड़ती हैं। उपन्यासों की लोकप्रियता के चलते ही प्रेमचंद को उपन्यास सम्राट कहा जाता है। उनके प्रमुख उपन्यासों में सेवासदन, गोदान, गबन, कायाकल्प, रंगभूमि प्रेमाश्रय, कर्मभूमि आदि हैं।
सच्चाई की मशाल दिखाई
उनका कहना था कि साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं अपितु उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। यह बात उनके साहित्य में उजागर हुई है। उन्होंने कुछ महीने तक मर्यादा पत्रिका का संपादन किया और फिर लगभग छह साल तक माधुरी पत्रिका का संपादन किया। 1932 में उन्होंने अपनी मासिक पत्र हंस शुरू की। 1932 में जागरण नामक एक और साप्ताहिक पत्र निकाला। उनका प्रारम्भिक साहित्य उर्दू में ही मिलता है। उन्होंने लगभग तीन सौ कहानियां, लगभग एक दर्जन उपन्यास, व कई लेख लिखे। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे व अनुवाद कार्य भी किया। गोदान उनकी कालजयी रचना है।
मुंशीजी ने कई बाल पुस्तकें भी लिखीं
मुंशीजी ने कई बाल पुस्तकें भी लिखीं तथा सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की भी रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई वह अन्य विधाओं से प्राप्त नहीं हो सकी। उन्होंने समाज सुधार, देशप्रेम, स्वाधीनता संग्राम आदि से संबंधित कहानियां लिखीं। उनकी ऐतिहासिक व प्रेम कहानियां भी काफी लोकप्रिय हैं। प्रेमचंद हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। हिंदी कहानी में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की उन्होंने एक नयी परम्परा की शुरूआत की। उनकी लगभग सभी रचनाओं का हिंदी, अंग्रेजी में रूपांतर किया गया और चीनी, रूसी आदि विदेशी भाषाओं में कहानियां प्रकाशित हुईं। मरणोपरांत उनकी कहानियों का संग्रह मानसरोवर आठ खंडों में प्रकाशित हुआ।
सामाजिक कुरीतियों का विरोध
मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों का डटकर विरोध किया है। मुंशी प्रेमचंद जनजीवन और मानव प्रकृति के पारखी थे। बाद में उनके सम्मान में डाक टिकट भी निकाला गया। उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। गोरखपुर में प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गयी जहां भित्तिलेख है व उनकी प्रतिमा भी स्थापित है।






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